Guru Pooja Aur Samarpan Bhav
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- गुरु मनुष्य जीवन के विकास में सबसे महत्वपूर्ण है।
- किसी भी उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना हिन्दु समाज की विशेषता है। गुरुपूर्णिमा पर्व का महत्व इसी दृष्टि से समझने की आवश्यकता है।
- आषाढ़ मास की पूर्णिमा हिन्दु समाज में गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय समाज में वैदिक काल के समय से ही गुरु शिष्य परम्परा विद्यमान रही है।
- अपने यहाँ मान्यता है कि बिना गुरु के ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं।
- जीवन की सही दृष्टि गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त होती है। देवताओं के गुरु बृहस्पति', भगवान श्री रामचन्द्र जी के गुरु वशिष्ठ' और विश्वामित्र', भगवान कृष्ण के गुरु 'सन्दीपनी', छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु‘समर्थ रामदास', बन्दा वैरागी के गुरु 'गुरुगोविन्द सिंह', स्वामी विवेकानन्द के गुरु 'रामकृष्ण परमहंस', ऋषि दयानन्द के गुरु ऋषि विरजानन्द' आदि।
- गुरुजनों के प्रति पूज्यभाव यह हमारी प्रकृति है। आध्यात्मिक विद्या का उपदेश देने और ईश्वर का साक्षात्कार करा देने वाले गुरु को अपनी भूमि में साक्षात् परम ब्रह्म कहा गया है।
- महर्षि दयानन्द जी ने भी गुरु का महत्व समझाते हुए कहा है कि गु अर्थात् अन्धकार, रु अर्थात् मिटाने वाला। गु तथा रु अर्थात्- अन्धकार को मिटाने वाला अर्थात् प्रकाश अर्थात् ज्ञान देने वाला।
- माँ ही प्रथम गुरु होती है।
- भारतीय संस्कृति में व्यक्ति ही नहीं तत्व को भी गुरु के रूप में स्वीकार करने की परम्परा ध्यान में आती है।
- गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक ‘गुरु दक्षिणा' यह हमारी प्राचीन पद्धति है। अनेक उदाहरण-आरुणि, शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, कौत्स आदि।
- संघ में व्यक्ति के स्थान पर तत्व निष्ठा का आग्रह।
- संघ ने पवित्र भगवाध्वज को गुरु स्थान पर स्वीकार किया। यह राष्ट्र का प्रतीक है। जिसे गुरु माना उसकी नित्य पूजा अर्थात् उसके गुणों को अपने लाना चाहिए।
- परमेश्वर की कृपा से मुझे जो भी प्राप्त हुआ है वह सब कुछ "गुरु चरणों में" समर्पित। “पतत्वेष कायो” एक संकेत मात्र है। इसका वास्तविक अर्थ केवल काया (शरीर) तक सीमित नहीं है। इसका अर्थ है मेरा शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा तथा वह सब कुछ जो मेरे पास किसी भी रूप में है उस सबका समर्पण।
- श्री गुरुदक्षिणा- वर्ष में एक बार स्वयंसेवक श्रद्धाभाव से ध्वज के सम्मुख उपस्थित होकर उसका पूजन करते हैं अर्थात् श्री गुरु के सम्मुख दक्षिणाअर्पित करते हैं।
- यह वार्षिक शुल्क, चन्दा, संग्रह, दान, सहयोग राशि जैसा नहीं। अत्यन्त श्रद्धापूर्वक, पवित्र भाव से, अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं में से कुछ कटौती करते हुए सञ्चित द्रव्य (धन) को गुरु राष्ट्रदेव अर्थात् भगवाध्वज के श्रीचरणों में विनीत भाव से समर्पित करना ही दक्षिणा है।
- जो दायें हाथ से अर्पित किया वह बायें हाथ को भी पता न चले अर्थात् कहीं भी इसकी चर्चा नहीं, प्रतिफल की लेशमात्र भी अपेक्षा नहीं।
- यह ३६५ दिन का संग्रहीत समर्पण।
- प्राचीन कल्पना-आय का १/१० भाग समाज के लिए अर्पण करना।
- श्रीगुरुदक्षिणा में धन के समर्पण के साथ-साथ "मैंने दिया" इस भाव का भी समर्पण है अर्थात् मन में यह भाव भी न आये।
परिणाम
- स्वयंसेवकों में समर्पण भाव की निरन्तर वृद्धि।
- स्वयंसेवकों में हीनता तथा अहंकार नहीं।
- दक्षिणा के संस्कारों के कारण शनैः शनैः लाखों स्वयंसेवकों में समाज के प्रति दायित्व बोध जागृत होता है।
- संघ आत्मनिर्भर।
- संघ पर किन्हीं अन्य (बाह्य) लोगों का वर्चस्व नहीं।
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